दादा लख्मीचंद फ़िल्म नहीं धोखा है, लूट का धंधा जारी है। तीन साल पहले बनी फ़िल्म के लिए हरियाणा सरकार से करोड़ों रूपए के अनुदान की फ़ाईल अब कैसे चल रही है और कौन चलवा रहा है ?
चंद सवाल, जो मन को झकझोर रहे हैं-
-लोकप्रिय इतिहास पुरूष पंडित लख्मीचंद पर बनी बायोपिक रूपी फ़िल्म में भी दो गीत/रागनी ऐसे जो उनके लिखे हुए ही नहीं हैं ? यह निर्माता का सतही पन दर्शाता है कि उसने बिना किसी गंभीर शोध के केवल बनाने के लिए फ़िल्म बना डाली !
-फ़िल्म के पहले ही सीन में जिस तरह नेहरू जी को रेत के टिब्बों में कुछ दर्जन लोगों को संबोधित करने व दादा लख्मीचंद के सामने उनको खड़ा करने की घटना दोनों को बौना करने की सुनियोजित राजनीतिक साज़िश है और यही फ़िल्म के पीछे छिपा एजेंडा है ? स्तब्ध करने वाली बात ये है कि फ़िल्म का ये हिस्सा शूटिंग पूरी होने के लंबे अर्से बाद कहीं से संकेत मिलने के बाद दोबारा शूट किया गया, बहुत बाद में ।
-तीन साल पहले बन चुकी ये फ़िल्म अभी क्यों रिलीज़ हुई ? टाइमिंग महत्वपूर्ण है। इसके पीछे मंशा क्या है ? राजनीतिक एजेंडा ?
-खेल ये भी चल रहा है कि यदि कोई विघ्न संतोषी बाबू फ़िल्म के पहले भाग के अनुदान पर भांझी मार दें तो सरकार से दूसरे भाग के लिए करोड़ों वसूल लो। जानकारों का मानना है कि पहले भाग में काम करने वाले किसी कलाकार को मेहनताना तक नहीं दिया गया और कुल लागत ही मात्र 50 लाख के क़रीब है। सरकार की कथित फ़िल्म नीति से पहले बन चुकी फ़िल्म के लिए सरकार की ओर से करोड़ों का अनुदान भला कैसे दिया जा सकता है ? ईमानदार सरकार की साख भी इस मामले में कसौटी पर है।
-जब फ़िल्म के पहले भाग में दादा लख्मीचंद जी के व्यक्तित्व को एक नर्तक तक सीमित कर दिया गया तो अगले भाग का क्या हश्र होगा ? जिस कथानक का आधार ही मिस कनसीव्ड हो, उसके कितने ही भाग इतने बड़े व्यक्तित्व से न्याय कैसे कर सकते हैं ? हक़ीक़त में इन्हें दादा लख्मीचंद या हरियाणवी संस्कृति से कोई लेना-देना ना होकर केवल जेब भरने से वास्ता है। धंधा है-बहुत गंदा है।
-प्रदेश के अधिकांश ख्याति प्राप्त कलाकारों को पहले भाग में तख़्त पर बिठाकर छुट्टी क्यों कर दी गई, उन्हें वांच्छित भूमिका क्यों नहीं दी गई?
और अंत में सबसे बड़ा सवाल, हरियाणवी संस्कृति के नाम पर बरसों से कमा खा रहे प्रदेश के ‘सांस्कृतिक गिद्ध ‘ फ़िल्म में दादा लख्मीचंद के क़द और योगदान की अनदेखी पर चुप क्यों हैं ? कोई बोल क्यों नहीं रहा ? सच तो यह है कि जातिवाद के आरोप तो ना फ़िल्म की समीक्षा ना लिखने का बहाना हैं। हक़ीक़त ये है कि वो अपने से बड़े गिद्ध का असली धंधेबाज़ चेहरा दिखाने से बचते हैं।
हमारा क्या है, मित्रों । हमें किसी का डर नहीं। साची कहना, सुखी रहना !