पहलगाम आतंकी हमले को लेकर अब हरियाणा से भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद रामचंद्र जांगड़ा के बयान ने नया विवाद खड़ा कर दिया है। शनिवार को भिवानी में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि हमले के दौरान जो महिलाएं अपने पति खो बैठीं, उनमें वीरांगना जैसा जोश नहीं था, इसलिए 26 लोगों की जान गई।
“अगर उनमें वीरांगना का भाव होता, तो वे हाथ जोड़कर नहीं मरते,”
— रामचंद्र जांगड़ा, सांसद (BJP)
यह टिप्पणी भिवानी के पंचायत भवन में आयोजित अहिल्याबाई होल्कर त्रिशताब्दी स्मृति संगोष्ठी में हुई, जहां वे बतौर मुख्य वक्ता मौजूद थे।
💬 सांसद जांगड़ा ने और क्या कहा?
सांसद ने अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अग्निवीर योजना की सराहना करते हुए कहा कि:
“अगर पहलगाम में मारे गए पर्यटक ट्रेनिंगशुदा होते, तो आतंकवादियों का मुकाबला कर सकते थे।
अगर उनके पास लाठी, डंडे होते और वे चारों तरफ से हमला कर देते, तो केवल 5-6 की जान जाती, लेकिन आतंकी मारे जाते।”
उन्होंने यह भी कहा कि पर्यटक हाथ जोड़कर मारे गए, जबकि उन्हें आत्मरक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए था।
🔥 पृष्ठभूमि: क्या हुआ था पहलगाम में?
22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर की बायसरन घाटी (पहलगाम) में तीन आतंकवादियों ने घात लगाकर हमला किया, जिसमें 26 पर्यटकों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इसके जवाब में भारतीय सेना ने 7 मई को PoK में 9 आतंकी ठिकानों पर एयर स्ट्राइक की।
⚠️ विवादों की कतार में और भी नेता
पहलगाम हमले और उसके बाद हुए ऑपरेशन सिंदूर को लेकर अन्य नेताओं के भी विवादित बयान सामने आए हैं:
🔹 विजय शाह (मंत्री, मध्यप्रदेश):
“जिन्होंने बहनों का सिंदूर उजाड़ा, उन्हीं की बहन को भेजकर ऐसी-तैसी कराई।”
यह आपत्तिजनक टिप्पणी उन्होंने 11 मई को इंदौर के महू क्षेत्र में कर्नल सोफिया कुरैशी पर की थी।
🔹 रामगोपाल यादव (नेता, सपा):
“विंग कमांडर व्योमिका हरियाणा की जाटव हैं… *** हैं। भाजपा उन्हें राजपूत समझती रही।”
यह बयान उन्होंने मुरादाबाद में 15 मई को दिया, जो स्पष्ट रूप से जातिसूचक और आपत्तिजनक था।
🔍 विश्लेषण: दर्द के मौके पर राजनीति और असंवेदनशीलता
जहां देश पहलगाम हमले जैसी घटनाओं से सदमे और शोक में डूबा है, वहीं नेताओं के ऐसे बयान मानवता और संवेदना की मर्यादाओं को लांघते दिख रहे हैं। आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता दिखाने की बजाय इस तरह की टिप्पणियाँ राजनीतिक ध्रुवीकरण को और गहरा करती हैं।
🧭 क्या कहती है संवैधानिक मर्यादा और सार्वजनिक पद की गरिमा?
राज्यसभा सांसद जैसे उच्च पदों से ऐसी टिप्पणियाँ सामने आना लोकतंत्र और संवैधानिक नैतिकता के लिए चुनौतीपूर्ण है। इससे न केवल पीड़ित परिवारों की पीड़ा बढ़ती है, बल्कि सरकार की संवेदनशीलता पर भी सवाल उठते हैं।
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