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  • Thu. Jul 3rd, 2025
विधानसभा

डॉ अनुज नरवाल रोहतकी “म्हारी विधानसभा” सीरीज की अपनी पहली किस्त में हम बात करने जा रहे हैं, उस विधानसभा सीट की, जिस पर ऐसा काण्ड हुआ था कि उसकी वजह से वह सीट एक जमाने में दुनियाभर में मशहूर हो गई थी. यह वही विधानसभा सीट है जहाँ के लोगों ने एक “बाप” की तो जीत की हेट्रिक लगवा दी थी, जिसकी वजह से वे हरियाणा के मुख्यमंत्री बने परंतु उनके खुद के बेटे जब सीएम पद बचाने के लिए यहाँ से चुनावी मैदान में उतरे तो वोटरों ने उनको बुरी तरफ नकार दिया. आज भी आलम यह है कि उस विधानसभा का जिक्र आते ही उस कथित काण्ड का जिक्र भी जहन में आ ही जाता है. उस काण्ड के बारे में किसी और दिन विस्तार से बतायेंगे. पुरानी पीढ़ी के लोग तो अब तक समझ ही चुके होंगे लेकिन नई पीढ़ी के सियासी चस्का लेने वालों को बताता चलूँ कि उस विधानसभा सीट का नाम “महम” है. इस क़िस्त में हम आपको “महम विधानसभा सीट” (Meham Assembly constituency) के अब तक के सफर पर ले चलते हैं.

विधानसभा

महम विधानसभा रोहतक लोकसभा सीट के अंतर्गत आती है. इस जाट बहुल सीट पर सामान्य सीट होने के बाद अब तक जाट बिरादरी के ही विधायक चुने गये हैं. महम विधानसभा सीट 1962 के चुनाव में वजूद में आई थी। उस वक्त हरियाणा, पंजाब का हिस्सा हुआ करता था. पहली दफा जब इस सीट पर जब चुनाव हुआ, तब यह सीट आरक्षित थी लेकिन जैसे ही 1 नवंबर 1966 को हरियाणा पंजाब से अलग हुआ और साल 1967 में हरियाणा के पहले विधान सभा चुनाव हुए तो इस सीट को सामान्य कर दिया गया.

विधानसभा

1962 के चुनाव में हरियाणा लोकसमिति के रामधारी महम के पहले विधायक चुने गए थे. हरियाणा बनने के बाद जब 1967 में इस सीट पर चुनाव हुआ तो आजाद उम्मीदवार प्रोफेसर महासिंह विधायक बने. उन्होंने कांग्रेस के बी. प्रसाद को हराया था. लेकिन अगले ही साल (1968) सियासी उथल-पुथल के चलते हरियाणा में मध्यावधि चुनाव हुए तो यहाँ से आजाद उम्मीदवार प्रोफेसर महासिंह को हराकर राज सिंह दलाल ने कांग्रेस का खाता खोल दिया. लेकिन 1972 में राज सिंह, निर्दलीय उम्मीदवार उम्मेद सिंह से हार गए.

विधानसभा

साल 1977 के विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी की तरफ से हरसरूप बूरा ने आजाद उम्मीदवार वजीर सिंह को हरा दिया. यहाँ तक तक सब सामान्य हो रहा था लेकिन अगला चुनाव इस सीट के लिए सामान्य चुनाव नहीं था. 1982 के विधानसभा चुनाव ने महम वीआईपी सीट में तबदील हो गई. उसकी खास वजह थी कि चौ. देवीलाल ने यहाँ से ताल ठोक दी और कांग्रेस के हरसरूप बूरा हरा दिया. ताऊ देवीलाल ने साल 1985 में राजीव-लोंगोवाल समझौते के खिलाफ इस्तीफा दे दिया. वे उप-चुनाव में एक बार फिर खुद मैंदान में उतरे और इस बार कांग्रेस के चौ. राज सिंह दलाल को हराकर विधायक बने.

1987 के चुनाव में ताऊ देवीलाल ने महम से जीत की हैट्रिक ही नहीं लगाई बल्कि हरियाणा सूबे के मुखिया भी बने. इस चुनाव में उन्होंने सरूप सिंह को हराया था.

विधानसभा

इससे महम के रुतबे में इजाफा होना लाजमी था लेकिन ताऊ देवीलाल इसके बाद भी संतुष्ट नहीं थे। साल 1989 में वे विपक्षी एकता की धुरी बनकर उभरे। इसी साल हुए लोकसभा चुनाव के लिए उन्होंने रोहतक लोकसभा सीट से ताल ठोंक दी और जीत हासिल कर देश के उप-प्रधानमंत्री बने. इसकी वजह से उन्हें महम विधान सभा सीट और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।

उन्होंने अपनी जगह अपने बेटे ओमप्रकाश चौटाला को मुख्यमंत्री बना दिया. बाद में महम सीट पर उप -चुनाव में बेटे ओमप्रकाश चौटाला को खड़ा कर दिया लेकिन ताऊ देवीलाल का यह फैसला उनको बहुत महंगा पड़ने वाला था. यह वही उपचुनाव था जो आजतक महम कांड के नाम से बदनाम है. (महम कांड के बारे में हम अन्य क़िस्त में चर्चा करेंगे ). इस चुनाव के बाद एक दशक तक देवीलाल परिवार को सियासी तौर पर लगभग अछूत कर दिया था. इस चुनाव में इस इलाके के लिए एक बड़ा नाम बनकर उभरा आनंद सिंह दांगी.

विधानसभा

खैर, साल 1991 में कांग्रेस उम्मीदवार आनंद सिंह दांगी ने जनता दल के सूबे सिंह को हराया तो साल 1996 में वे इनेलो के बलबीर सिंह उर्फ़ बाली पहलवान से हार गए. उसके बाद 2000 में भी बाली पहलवान ने दांगी को विधान सभा का मुंह नहीं देखने दिया. लेकिन उसके बाद दांगी ने जीत की हैट्रिक लगाई. 2005 में उन्होंने इनेलो के राजबीर सिंह तथा 2009 व 2014 में शमशेर सिंह खरकडा को हराया. साल 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से बागी होकर बलराज कुंडू आजाद उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे और आनंद सिंह दांगी व शमशेर सिंह खरकडा जैसे दिगज्जों को हरा दिया.

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