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  • Sat. Nov 15th, 2025

चौधरी चरण सिंह: एक संघर्षशील नेता की कहानी

Chaudhary Charan Singh: Story of a struggling leader

Alakh Haryana || चौधरी चरण सिंह, उत्तर प्रदेश के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री रहे, जिनकी राजनीतिक यात्रा देश की राजनीति के महत्वपूर्ण मोड़ों को चिह्नित करती है। 1937 में छपरौली से पहली बार विधायक चुने गए चौधरी साहब की पहचान एक सख्त प्रशासक के रूप में रही। उनकी शख्सियत में विरोधाभास भी था – एक तरफ जहां वे गांधी और पटेल के समर्थक थे, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने पंडित नेहरू और कांग्रेस की नीतियों की खुलकर आलोचना की।

राजनीति में प्रारंभ और उथल-पुथल

चौधरी चरण सिंह की राजनीति का सफर संघर्षों और चुनौतियों से भरा रहा। 1967 में उन्होंने उत्तर प्रदेश में राज्य की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार की अगुवाई की। इस सरकार का गठन तब हुआ जब कांग्रेस बहुमत से चूक गई थी और चरण सिंह ने चंद्रभानु गुप्त के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला। हालांकि, यह सरकार अल्पजीवी साबित हुई और 1968 में गिर गई।

इसके बाद 1970 में उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री पद संभाला, लेकिन यह सरकार भी कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के कारण जल्द ही गिर गई।

लोकसभा में पदार्पण और संघर्ष

चरण सिंह का अगला कदम केंद्र की राजनीति की ओर था, लेकिन 1971 में उन्होंने लोकसभा चुनाव में हार का सामना किया। इसके बाद, 1974 में उन्होंने भारतीय लोकदल की स्थापना की और इमरजेंसी के दौरान जेल गए। जेल से बाहर आने के बाद, उन्होंने इमरजेंसी के खिलाफ तीखा विरोध किया और कांग्रेस सरकार की आलोचना की।

1977: जनता पार्टी सरकार और उपप्रधानमंत्री की कुर्सी

चरण सिंह ने 1977 के चुनाव में जनता पार्टी के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस चुनाव के परिणामस्वरूप कांग्रेस की हार हुई और जनता पार्टी सत्ता में आई। चौधरी चरण सिंह ने उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री के रूप में अपनी सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, इस दौरान उनकी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से तकरार शुरू हो गई और उनके नेतृत्व में कई विवाद उभरने लगे।

प्रधानमंत्री पद की ओर बढ़ते कदम

चरण सिंह का प्रधानमंत्री बनने का सपना लगातार ज़िन्दा रहा। 1979 में, उन्होंने अपनी पार्टी के 76 सांसदों के साथ जनता पार्टी से अलग होकर कई दलों के समर्थन से प्रधानमंत्री का पद संभाला। लेकिन उनके लिए यह पद स्थिर नहीं रहा। 20 अगस्त 1979 को कांग्रेस ने उनका समर्थन वापस ले लिया और वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर हो गए। उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में कभी भी संसद का सामना नहीं किया, और उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना अधूरा रह गया।

किसानों का मसीहा

चौधरी चरण सिंह का हमेशा मानना था कि भारतीय राजनीति और समाज की धारा को समझने के लिए किसान और ग्रामीण भारत की आवाज़ को सुनना ज़रूरी है। वे केवल सरदार पटेल को अपना नेता मानते थे और उनका जीवन मुख्य रूप से किसानों के हक और भूमि सुधारों पर आधारित रहा। उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखी, जिनमें ‘एबोलिशन ऑफ जमींदारी’, ‘भारत की आर्थिक नीति की गांधीवादी रूपरेखा’ और ‘इकोनॉमिक नाइटमेयर ऑफ इंडिया’ जैसी कृतियां शामिल हैं।

अंतिम वर्ष और धरोहर

चरण सिंह की राजनीति का अंतिम दौर ढलान पर था, लेकिन फिर भी उनके लिए किसान और कृषि सुधार सर्वोपरि थे। 1980 में उन्हें बागपत से फिर से सांसद चुना गया, लेकिन उनकी पार्टी की ताकत धीरे-धीरे घटने लगी। 1984 में पार्टी के केवल तीन सांसद रह गए। 1985 में उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ और इसके बाद वे चेतना शून्य हो गए। 29 मई 1987 को उनका निधन हुआ, लेकिन आज भी किसानों के बीच उनका योगदान और यादें जीवित हैं।

चरण सिंह को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया और उनकी मेहनत, संघर्ष और किसानों के लिए उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।

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